मशहूर शायर राहत इंदौरी का निधन हो गया है. वह कोरोना वायरस से थे संक्रमित. बड़ा शायर वो है जो शेर बतौर शायर नहीं बल्कि बतौर आशिक कहे. जब लोग राहत इंदौरी साहब को सुनते हैं या पढ़ते हैं तो उन्हें एक ऐसा शायर नज़र आता है जो अपना हर शेर बतौर आशिक कहता है. वह आशिक जिसे अपने अदब के दम पर आज के हिन्दुस्तान में अवाम की बेपनाह महबूबियत हासिल है. शायरी को लेकर ग़ालिब, मीर, ज़ौक, फैज़. इक़बाल आदि मुतालिए (अध्यन) के विषय हैं और हमेशा रहेंगे. इनके मुतालिए के बिना तो शेर शुद्ध लिखना और ग़ज़ल समझना भी दूर की बात है लेकिन ग़ालिब, मीर, ज़ौक, फैज़ और इक़बाल जैसे बड़े शोअराओं के अलावा आज हिन्दी-उर्दू का कैनवस इतना बड़ा सिर्फ इसलिए है क्योंकि अदब की मशाल राहत इंदौरी जैसे शायर के हाथ में है..
यह सच है कि साहित्य इमारतों में पैदा नहीं होती..उसे गंदे बस्तियों में जाकर फनीश्वरनाथ रेनु बनने के लिए आंचलिक सफर तय करना पड़ता है. उसे प्रेमचंद बनने के लिए मॉल की चकाचौंध छोड़कर किसी काश्तकारी करते होरी की तलाश में निकलना ही पड़ता है. उसे सआदत हसन मंटो की तरह अरबाबे निशात (कोठे वालियों की गली) में भटकना पड़ता है. मोहब्बत में सफल हो जाने मात्र से साहित्य पैदा नहीं होता. साहित्य लिखने के लिए अमृता प्रीतम की तरह इमरोज को अपने घर की छत और साहिर को खुला आसमान बनाना पड़ता है. राहत साहब की सबसे खास बात यही है कि उनकी शायरी मीर और ग़ालिब की ज़मीन पर उपजी अपनी ही तरह की एक शायरी है. वो मीर और ग़ालिब के खानदान के ज़रूर हैं लेकिन राहत साहब की पहचान उनकी अपनी है.
जब राहत साहब के वालिद रिफअत उल्लाह 1942 में सोनकछ देवास जिले से इंदौर आए तो उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन उनका राहत इस शहर की सबसे बेहतरीन पहचान बन जाएंगे. राहत साहब का बचपन का नाम कामिल था. बाद में इनका नाम बदलकर राहत उल्लाह कर दिया गया. राहत साहब का बचपन मुफलिसी में गुजरा. वालिद ने इंदौर आने के बाद ऑटो चलाया, मिल में काम किया, लेकिन उन दिनों आर्थिक मंदी का दौर चल रहा था. 1939 से 1945 तक चलने वाले दूसरे विश्वयुद्ध ने पूरे यूरोप की हालात खराब कर रखी थी. उन दिनों भारत के कई मिलों के उत्पादों का निर्यात युरोप से होता था. दूर देशों में हो रहे युद्ध के कारण भारत पर भी असर पड़ा. मिल बंद हो गए या वहां छटनी करनी पड़ी. राहत साहब के वालिद की नौकरी भी चली गई. हालात इतने खराब हो गए कि राहत साहब के परिवार को बेघर होना पड़ा. जब राहत साहब ने आगे कलम थामा तो इस वाकये को शेर में बयां किया..