एक हंसते खेलते परिवार पर जीवनदाता कहे जाने वाले अस्पतालों का दंश।

Opinion

अस्पताल का नाम लेते ही मन में एक छवि बनती है जो विश्वास का एक बेहतरीन उदाहरण है।और जिसमें आप कुछ अंजान लोगों के बीच अपनों को इस भरोसे छोड़ आते है कि वह आपसे बेहतर और जिम्मेदार है।अब इसी में यह सोचिए अगर लोगों का यह विश्वास गलत हो और भगवान का सजीव रूप समझा जाने वाले डाक्टर और मंदिर समझा जाने वाला अस्पताल आपको सिर्फ इसलिए मरने दे क्योंकि आप कोई नामित व्यक्ति या सेलिब्रिटी नहीं है।

सुनकर ही एक बार को मन घबरा जाता है कि जीने के लिए आपका स्वास्थ्य नहीं आपकी लोकप्रियता पैमाना बन गया है और वो भी तब जब विश्व एक अदृश्य दुश्मन के साथ लड़ाई लड़ रहा और आप हर तरह से अपना योगदान दे रहे। एक ऐसा ही दुर्भाग्यपूर्ण वाक्या हुआ दिल्ली स्थित LNJP अस्पताल में जहाँ एक मरीज की सिर्फ इसलिए अनदेखी हुई क्योंकि उसने अस्पताल और सरकार पर भरोसा किया यह सोचकर कि जल्द ही वह वापस अपने परिवार के बीच होगा।

बात हो रही है स्व. श्री राजेन्द्र कुमार शर्मा जी कि जो आज इस दुनिया में नहीं है और उनका परिवार आजतक इसका अफसोस कर रहा कि कैसे भरोसा कर लिया उस अस्पताल पर जिसकी कथनी और करनी में जमीन आसमान का फर्क है और यहाँ तक कि इस बदहाली की जिम्मेदार व्यवस्था आज भी मूक है और मजाक उड़ा रही उनका जो अस्पताल पर भरोसा करते है। जब पूरा विश्व एक महामारी कोरोना से लड़ रहा है ऐसे में दिल्ली में एक व्यक्ति से जीने का हक सिर्फ़ इसलिए छीना जाता है क्योंकि वह भारत में रहने वाला एक आम नागरिक है जो देश की प्रगति का पहिया तो बनता है पर उसकी जिम्मेदारी ना प्रशासन लेता है ना वो अस्पताल जहाँ वो यह सोचकर आया कि यह स्थान सबके लिए एक सा है। स्व. श्री राजेन्द्र कुमार शर्मा के पुत्र शैलेंद्र बताते है कि किस तरह LNJP अस्पताल ने उनके स्वस्थ पिता को अपनी बदहाली और अव्यवस्था के चलते मृत्यु द्वार तक पहुँचा दिया।

स्व. श्री राजेन्द्र कुमार शर्मा जी ने एक प्राइवेट लैब में अपनी कोरोना जांच कराई जो दुर्भाग्यपूर्ण रूप से पाजिटिव आई पर उन्होंने और उनके परिवार ने जिम्मेदार नागरिक की तरह इसकी जानकारी प्रशासन को दी और परिणामस्वरूप उनको पहले क्वारंटीन में और फिर थोड़े ही समय में अस्पताल में भर्ती कर दिया गया और उसके बाद जो हुआ वो अविश्वसनीय है। भर्ती करने के बाद अस्पताल प्रशासन के तरफ से कोई भी जानकारी नहीं देना, ना घरवालों को स्थिति से अवगत करना और ना ही बेसिक सुविधा जैसे खाना पानी ना देना कि बात सामने आई।

इसके अलावा ना ही कोई जांच ना ईलाज और वक्त बेवक्त वार्ड का बदला जाना वो भी बिना किसी जानकारी के परिवार के बार -बार संपर्क के बाद भी अस्पताल प्रशासन की नींद नहीं टूट रही थी। जिस दिन किसी तरीके से मरीज से बात होती तो कहते यहाँ से ले चलो यहाँ पानी खाना तक नहीं है इलाज की कैसे उम्मीद करे इस तरह की बात सामने आनेपर परिवार ने अस्पताल बदलने का निर्णय ले लिया पर तब तक देर हो गई थी। इस सबमें जो चीज व्यथित कर रही थी वो थी अस्पताल की तरफ से मृत्यु तक की सूचना ना आना और ना ही कोई स्पष्ट जवाब।

स्व. श्री राजेन्द्र कुमार शर्मा
        स्व. श्री राजेन्द्र कुमार शर्मा

कुछ सवाल जिसकी जवाबदेही अस्पताल की बनती है पर वह मौन है जैसे –                                                             

आखिर क्यों सारी सुविधा का दिखावा करने वाला अस्पताल आज चुप है ?

क्या सिर्फ अखबारों में छपी आपकी फोटो आपके जीने का लाइसेंस है और आम व्यक्ति बस एक नंबर ?

क्यों मौका नहीं दिया जाता परिवार को कि वह फैसला लें इलाज व्यवस्था पर ?

जब पानी और खाने जैसी मूल सुविधा ना दे पाए अस्पताल तो क्या हक है एक परिवार खराब करने का ?

अपनी नाकामी अगर मान नहीं सकते तो जिम्मेदारी लेने का क्या औचित्य ?

क्या अस्पताल में काम करने वाले या किसी नामचीन को ऐसा इतंजाम करने की हिम्मत है ?

पर चीजें यही समाप्त नहीं होती इतना कुछ होने के बाद अस्पताल की तरफ से डिस्चार्ज समरी मिलने में 3 महीने लग जाते है, मृत्यु प्रमाण पत्र पर सूचना गलत अंकित होती है जिसको सही कराने के लिए परिवार चक्कर काटता रहता है और इतना ही नहीं मृत्यु के एक दिन पहले ही डेथ नोट बन गया जैसे यह सब कुछ योजना अनुसार हुआ हो। हालात बर्दाश्त के बाहर तब हो गये जब अस्पताल प्रशासन से हमारी लड़ाई के बीच अखबार में सूर्ख अक्षरों में लेख प्रकाशित हुआ कि कैसे इसी अस्पताल ने एक नामी व्यक्ति को तब भी स्वस्थ कर दिया जब उसको बहुत गंभीर रोग थे।

यह खबर पढ़कर ठगा हुआ सा महसूस होता है कि कैसे नाम और पेशा आपकी जान की कीमत है। आज इस स्थिति में एक परिवार है कल हजारों होंगे और इसलिए नहीं की स्थिति भयावह है पर इसलिए कि इनकी जवाबदेही नहीं बनाई जाती लोगों के द्वारा अगर गलत करना गलत है तो सहना भी और समय कि आवश्यकता है कि अस्पताल को मंदिर नहीं न्यायालय बनाए जहाँ सब बराबर हो।

अस्पताल की नाकामी ऐसी कि किसी को भी एक बार भरोसा ही ना हो कि ऐसी क्रूरता की क्या जरूरत और क्यों विश्वास करें ऐसे अस्पताल पर जिसके लिए आप सिर्फ एक नंबर है इंसान नहीं और ना आपको जीने का हक है। ऐसे अस्पताल पर ना सिर्फ लगाम लगनी चाहिए बल्कि एक ठोस संदेश भी लोगो को देना चाहिए कि जान सबकी कीमती है और एक सामान भी।